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Uttarakhand Ghee Sankranti Festival: उत्तराखण्ड के दोनों मंडलों कुमाऊँ और गढ़वाल में भादो (भाद्रपद) महीने की संक्रान्ति को ” घी त्योहार ” मनाया जाता है। कुमाऊँ में इसे ” घ्यू त्यार ” कहते हैं तो गढ़वाल में इसे ” घी संक्रान्त ” कहते हैं। उत्तराखण्ड के कुमाऊँ में वैसे हर महीने की संक्रान्ति को कोई व कोई त्योहार मनाया ही जाता है। भादो माह की संक्रान्ति के दिन सूर्य ” सिंह राशि ” में प्रवेश करता है । इसी कारण इसे ” सिंह संक्रान्ति ” भी कहते हैं।
कृषि और पशुधन से जुड़े इस पर्व को पूरे कुमाऊँ और गढ़वाल में बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। टिहरी जिले के जौनपुर में आज के दिन को पत्यूड़ संक्रान्ति के रूप में मनाते हैं। पत्यूड़ पिनालू (अरबी) के बड़े-बड़े पत्तों के बनाए जाते हैं। कुमाऊँ व गढ़वाल में इस पर्व पर अनिवार्य रूप से घी खाने की परम्परा है। मान्यता है कि इस पर्व के दिन घी का सेवन न करने वाले लोग अगला जन्म गनेल (घोंघे ) के रूप में लेते हैं।
इस बारे में एक बोल भी प्रचलित है :-
‘घ्यू संकरात क चुपाड़ा हाथ,
” मास का बेडू, तिमळाक पात।”
इस कहावत के बारे प्रसिद्ध जनकवियों का मानना था, ” जो लोग अपने आलसीपन व अकर्मण्यता के कारण प्रकृति से प्राप्त संसाधनों का और अपने पशुधन का पूरा इस्तेमाल नहीं करते हैं, ऐसे कर्महीन लोग निश्चित ही अगले जन्म में गनेल की ही गति को प्राप्त होंगे।” उल्लेखनीय है कि गनेल बहुत ही धीमी गति चलने का कार्य करता है। मतलब यह कि वह एक आलसी की तरह का जीवन जीता है और उसकी आयु बहुत ही कम होती है। बरसात के मौसम में बारिश के कारण आदमी के तेजी से काम करने की क्षमता पर असर होता है । वह अपने कई आवश्यक कार्य तेज बारिश के कारण नहीं कर पाता।
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इसके अलावा बरसात के मौसम में आदमी को बुखार भी काफी आता है। साथ ही फोड़े-फुंसियाँ भी बहुत होते हैं । माना जाता है कि इससे मनुष्य का शरीर काफी कमजोर हो जाता है। सावन के महीने के बाद बरसात भी कम होने लगती है । ऐसे में बुखार आदि से कमजोर पड़े शरीर को घी खाने से तरावट व ताजगी मिलती है। जिससे शरीर में वसा की कमी भी पूरी हो जाती है। शायद तभी कहा जाता है कि जो त्यार के दिन घी नहीं खाएगा, वह अगले जन्म में गनेल बनेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि वह शरीर की कमजोरी के कारण आलसी ही बना रहेगा और आने वाले दिनों में अपने आवश्यक काम भी सही समय पर नहीं कर पाएगा । जिससे उसे आर्थिक हानि होने की पूरी आशंका बनी रहेगी।
इस दिन विभिन्न प्रकार के पकवान बनाए जाते हैं, जिनमें पूरी, मास ( उड़द ) के दाल की भरवा लगड़ व भरवा रोटी, बढ़ा, पुए, सेल आदि पकवान बनाए जाते हैं । इसके अलावा मूला, लौकी, कद्दू, तोरई, पिनालू के गाबों की मिश्रित सब्जी लोहे की कढ़ाही में बनाई जाती है। लोहे की कढ़ाही में बनी हुई सब्जी का स्वाद ही कुछ अलग होता है, साथ ही राई पीसकर ककड़ी के रायते में हल्दी, नमक के साथ मिलाया जाता है। खाते समय राई की तीखी गंध जब स्वाद के साथ सीधे नाक में घुसती है तो उसका जो आनन्द है, उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है।
इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन पकवानों के साथ घर का बना हुआ शुद्ध घी का सेवन अनिवार्य तौर पर किया जाता है। जो लोग साल भर कभी भी घी का सेवन नहीं करते हैं, वे भी घ्यू त्यार के दिन एक चम्मच घी अवश्य ही खाते हैं। गाय के घी को प्रसाद स्वरुप सिर पर रखा जाता है और छोटे बच्चों की तालू (सिर के मध्य) में मला भी जाता है। छोटे – छोटे बच्चों की जीभ में भी थोड़ा सा घी अवश्य लगाया जाता है। जिन घरों में धिनाली ( अर्थात दूध देने वाली गाय, भैंस) नहीं होती है, वे अपने आस-पड़ोस से ताजा घी पैंच में जरुर माँगकर लाते हैं। कई बार लोगों को पैंच माँगने की आवश्यकता नहीं पड़ती है । गाँव के किसी न किसी घर से त्यार के लिए दूध, घी अवश्य पहुँच जाता है। यह पहाड़ के गाँवों की एक जीवन्त सामाजिक, पारिवारिक परम्परा है। जिसमें धिनाली न होने पर वह परिवार बिना दूध, दही, घी के नहीं रहता है। कुमाऊँ में पिथौरागढ़, चम्पावत व बागेश्वर जिले के कुछ क्षेत्रों में यह त्योहार दो दिन मनाया जाता है।